Wednesday 28 May 2014

class 9 cbse hindi solution upbhoktavad ki sanskriti (उपभोक्तावाद की संस्कृति प्रश्न-उत्तर )

उपभोक्तावाद की संस्कृति

प्रश्न1:- लेखक के अनुसार जीवन में 'सुख' से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :- लेखक के अनुसार उपभोग-सुख नहीं है।सुख की परिभाषा बताते हुए लेखक ने कहा है कि मानसिक, शारीरिक तथा सूक्ष्म आराम भीसुख’ है। परन्तु आज केवल उपभोग के साधनों-संसाधनों का अधिक से अधिक भोग ही सुख कहलाता है।    

प्रश्न 2 :- आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ?
उत्तर :- उपभोक्तावादी संस्कृति ने आज हमारे दैनिक जीवन पूर्णत: अपने प्रभाव में ले लिया है। जागने से लेकर सोने तक ऐसा प्रतीत होता है कि इस दुनिया में विज्ञापन के अलावा न तो कोई चीज़ सुनने लायक है और न देखने लायक।आज हर तंत्र पर विज्ञापन हावी है,परिणामत: हम वही खाते-पीते और पहनते-ओढ़ते हैं जो आज के विज्ञापन हमें कहते हैं। सच तो यह है कि उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम धीरे -धीरे उपभोगों के दास बनते जा रहे हैं।
उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण आज हम केवल अपने बारे में सोचने लगे हैं जिससे हमारा सामाजिक सम्बन्ध संकुचित होने लगा है।सरोकार घट रहे हैं।मन अशान्त और आक्रोशित रहने लग है।परस्पर दूरी बढ़ रही है।मर्यादाएँ और नैतिकताएँ समाप्त होती जा रही हैं और विकास के महत् लक्ष्य को छोड़ न जाने हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं।

प्रश्न 3 :- गाँधी जी  ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है ? 
उत्तर :- गाँधी जी चाहते थे कि लोग सदाचारी, संयमी और नैतिक बनें,ताकि लोगों में परस्पर प्रेम,भाईचारा और अन्य सामाजिक सरोकार बढ़े। सामाजिक मर्यादाओं और नैतिकता के पक्षधर थें। उन्हें सादग़ी पसन्द थी।
गाँधी जी ने अपनी दूरदर्शिता से उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्प्रभाव को बहुत पहले ही जान लिया था। उपभोक्तावादी संस्कृति भोग को बढ़ावा देती है।लोग इसके चक्कर में पड़ कर  अनैतिक और अमर्यादित कार्य करने से भी नहीं चूकते।इसलिए उन्होंने कहा कि हम भारतीयों को अपनी बुनियाद और अपनी संस्कृति पर कायम रहना चाहिए। परन्तु उन्हें जिसका डर था आज वैसा ही हो रहा है। हमारी सांस्कृतिक पहचान खतरे में पड़ गई है। यही कारण था कि गाँधी जी  ने उपभोक्तावादी संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती कहा।

प्रश्न 4 :- आशय स्पष्ट कीजिए -

() जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं। 
उत्तर :- उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव अप्रत्यक्ष हैं। हमारा चरित्र कब और कैसे बदल रहा है, हम इससे सर्वथा अनजान हैं।अनजाने में ही आज हम भोग को ही सुख मान बैठे हैं और उन्हें ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य बना लिए हैं।दूसरे शब्दों में कहें तो हम उत्पादों के गुलाम होने लगे हैं और आज हम उनका उपभोग नहीं कर रहे बल्कि गुलामों की तरह उनके दिशा-निर्देशों का पालन मात्र कर रहे हैं।

() प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैंचाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।   
उत्तर :- हास्यास्पद का अर्थ है- हँसने योग्य । हमारे समाज में लोग स्वयं को प्रतिष्ठित दिखाने के लिए और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए ऐसे - ऐसे कार्य और व्यवस्था करते हैं कि अनायास हँसी फूट पड़ती है। जैसे लोगों को दिखाने के लिए कंप्यूटर खरीदना, संगीत की समझ न होने पर भी महंगा म्युज़िक सिस्टम खरीदना,पाँच सितारा अस्पताल में इलाज करवाना, आदि । अमरीका जैसे देश में तो आजकल लोग अपने अंतिम संस्कार की तैयारियाँ भी पहले ही करवाने लगे हैं। ये सब झूठी प्रतिष्ठा के ऐसे चिह्न हैं जिसे सुनकर हँसी आती है।  
  
प्रश्न 5 :- कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देख कर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं। क्यों?    
उत्तर :- विज्ञापन की भाषा बहुत ही मोहक होती है।प्रचार तंत्र वाले अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों, दृश्यों और ध्वनियों के माध्यम से हमें प्रभावित करते हैं। हमारा मन उनकी लच्छेदार बातों से भ्रमित होकर विज्ञापित वस्तु को खरीदने के लिए मचल उठता है।विज्ञापन की चपेट में आनेवाला व्यक्ति इस बात पर विचार भी नहीं करता कि कौन-सी वस्तु उसके लिए अनुकूल है और कौन-सी प्रतिकूल । वह तो बस किसी मतवाले की तरह अनुपयोगी वस्तुएँ भी खरीदने को लालायित हो जाता है। 

प्रश्न 6 :- आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट करें।   
उत्तर :- किसी ने कहा है- “ नाम में क्या रखा,काम देखो यारों ” जब हम बाजार कुछ खरीदने जाएँ तो ऐसे आप्त वचनों का स्मरण जरूर करें। निश्चित रूप से वस्तुओं को खरीदने का आधार उनकी गुणवत्ता होनी चाहिए। जिस तरह सूर्य को दिया दिखाने की जरूरत नहीं होती, ठीक उसी तरह गुणकारी वस्तुओं को भी अपनी गुणवत्ता साबित करने के लिए किसी सीने-स्टार,खिलाड़ी या नचनिया की जरूरत नहीं होती। विज्ञापन हमें एक साथ कई नाम सुझाने के लिए उपयोगी हो सकते हैं पर वस्तुओं के चुनाव में उनकी कोई भूमिका स्वीकार नहीं करनी चाहिए। वे हमारे मन को भ्रमित करने का काम करते हैं। उदाहरण के लिए हम साबुन का विज्ञापन ले सकते हैं । जिसमें आकर्षक अभिनेत्री साबुन लगाती है और उस साबुन को ही अपने सौन्दर्य का राज़ बताती है। अब भला कोई साबुन किसी के चेहरे की बनावट को कैसे बदल सकता है ? लेकिन लोग उस अभिनेत्री की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर इतना भी नहीं सोचते कि उन्हें तैलीय त्वचा के लिए साबुन लेना है या खुश्क त्वचा के लिए। वे तो बस मतवालों की तरह अभिनेत्री का बताया साबुन खरीद लेते हैं।हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। वस्तुओं के चुनाव में हमें अपने विवेक का इस्तेमाल कर उनकी गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 7 :- पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रहीदिखावे की संस्कृति ” पर विचार व्यक्त कीजिए।  

उत्तर :- “दिखावे की संस्कृति” का वज़ूद हमारे यहाँ पहले भी रहा है परन्तु आज यह पूरे समाज को किसी छूत के रोग की तरह अपने चपेटे में ले रही है और दिन-व-दिन फ़ैलती-फूलती जा रही है।आज लोग अपने को आधुनिक से अत्याधुनिक और कुछ हटकर दिखाने के चक्कर में क़ीमती से क़ीमती सौंदर्य-प्रसाधन , म्युज़िक-सिस्टम , मोबाईल फोन , घड़ी और कपड़े खरीदते हैं। समाज में आजकल इन चीज़ों से लोगों की हैसियत आँकी जाती है।इसलिए समाज को अपनी हैसियत दिखाने ,स्वयं को विशिष्ट साबित करने के लिए हजारों क्या लाखों रुपये खर्च करने लगे हैं। अब इसे दिखावे की संस्कृति नहीं तो और क्या कहें ?“दिखावे की संस्कृति” का दूसरा पहलू अति भयावह है। इससे हमारा चरित्र स्वत: बदलता जा रहा है। हमारा सामाजिक सम्बन्ध संकुचित होने लगा है,परस्पर दूरी बढ़ रही है,सरोकार घट रहे हैं।मन अशान्त और आक्रोशित रहने लग है। मर्यादाएँ और नैतिकताएँ समाप्त होती जा रही हैं।समासत: यह कहा जा सकता है कि इसके बुरे पक्ष से बचना निश्चित रूप से हमारे समाज के लिए एक कठिन चुनौती है।  

5 comments:

  1. Thanks a lot for these answers..

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  2. Great help i got from these answers..........thanks a lot.......i really appreciate you for uploading these answers..........thanks again!!

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  3. Where is Bhasha ki Baat ?

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